अयोध्या में राम मंदिर के ध्वजारोहण का ऐतिहासिक पल आया, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में श्रद्धालुओं ने इस भव्य अवसर का जश्न मनाया। 1992 के आंदोलन में शामिल कारसेवकों के लिए यह क्षण विशेष रूप से भावुक कर देने वाला था। संतोष दूबे ने इसे “दशकों पुराने संकल्प की सिद्धि” बताते हुए कहा कि यह पल उन सभी कारसेवकों के लिए गर्व का क्षण है जिन्होंने अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय और बलिदान इस आंदोलन के लिए दिया।
संघर्ष, बलिदान और पीड़ा की कहानी
संतोष दूबे ने 1992 की हिंसक घटनाओं को याद करते हुए बताया कि उस समय कारसेवकों पर गोलियां चलाई गई थीं और कई साथी शहीद हुए। उन्होंने घायल साथियों को कंधे पर उठाकर सुरक्षित स्थान तक ले जाने की घटनाएं साझा कीं। दूबे ने कहा कि उनके पिता ने उन्हें निर्देश दिया था, “ढांचा ढहाए बिना वापस मत आना,” और यही संकल्प उनके भीतर ऊर्जा का स्रोत बना।
टीम बनाकर संघर्ष की रणनीति
दूबे ने बताया कि उस समय कारसेवकों को हथौड़े, फावड़े, गैती और तलवारें दी गई थीं और उन्हें 17 टीमों में बांटा गया था। सभी टीमों ने जीवन की परवाह किए बिना आंदोलन को आगे बढ़ाने की प्रतिज्ञा ली थी। उनका कहना था कि उस समय की घटनाओं में जेल, लाठीचार्ज और दमन जैसी कठिनाइयां भी शामिल थीं, लेकिन आज मंदिर की पूर्णता और ध्वजारोहण की तैयारी उन सभी कठिनाइयों को पीछे छोड़ देती है।
सपना साकार होने का गौरव
संतोष दूबे ने कहा कि आज का पल उनके जीवन की सार्थकता, तप और तपस्या का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि वह ढांचा गिराने की घटना को धर्मकार्य मानते हैं और इसके महत्व को कभी नहीं भूलेंगे। इस ध्वजारोहण समारोह ने न केवल उनके लिए, बल्कि सभी श्रद्धालुओं के लिए दशकों पुराने संकल्प की पूर्ति का प्रतीक बनकर इतिहास में स्थान बना लिया है।
