कानपुर देहात के रूरा इलाके से रविवार सुबह ऐसी खबर आई जिसने पूरे इलाके को झकझोर दिया। एक बीएससी छात्रा ने अपने हाथों में दवाइयों के साथ इंस्टाग्राम पर एक रील पोस्ट कर दी, जिसमें उसने लिखा – “सब लोग खुश होंगे मेरे मर जाने से… चलो आज वो भी मैं कर दे रही हूं।” इस रील के वायरल होते ही सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म मेटा के सिस्टम ने खतरे का संकेत पकड़ लिया। मेटा ने फौरन पुलिस को अलर्ट भेजा और इसके बाद शुरू हुई एक रेस — “जान बचाने की रेस।”
अलर्ट मिलते ही कानपुर देहात पुलिस ने बिना देर किए रूरा थाना क्षेत्र की लोकेशन ट्रेस की। कुछ ही मिनटों में पुलिस टीम छात्रा के घर पहुंच गई। उस वक्त घर में सन्नाटा पसरा था, परिवार को भी कुछ पता नहीं था। पुलिस ने जब दरवाजा खटखटाया तो लड़की चौंक गई। कमरे में दवाइयों का पैकेट, मोबाइल और कुछ कागज रखे थे। लेकिन पुलिस के पहुंचने से पहले ही सब कुछ बदल गया — भावनाओं, डर और राहत का मिश्रण पूरे घर में फैल गया।
पुलिस और परिवार की समझदारी से टली बड़ी घटना
पुलिस ने छात्रा से शांतिपूर्वक बातचीत की, उसे समझाया और बताया कि उसकी जिंदगी की कीमत सोशल मीडिया की ट्रोलिंग या मानसिक दबाव से कहीं ज़्यादा है। परिवार के लोगों को भी बुलाया गया। मां की आंखों में आंसू थे, पिता ने उसे गले से लगा लिया। पुलिस की काउंसलिंग टीम ने छात्रा को काउंसलिंग देने की व्यवस्था की और उसे मेडिकल जांच के लिए भेजा गया।
यह मामला मेटा के सेफ्टी अलर्ट सिस्टम की एक बड़ी सफलता के रूप में सामने आया है। मेटा का AI आधारित मॉनिटरिंग सिस्टम ऐसे पोस्ट और रील्स को स्कैन करता है जिनमें आत्महत्या या आत्म-हानि से जुड़े शब्द या दृश्य होते हैं। यह सिस्टम तुरंत स्थानीय प्रशासन को सूचना देता है। इससे पहले भी देश के कई हिस्सों में इस तकनीक से लोगों की जान बच चुकी है, लेकिन कानपुर वाला मामला एक सटीक उदाहरण बन गया।
घटना के बाद सोशल मीडिया पर सवालों की झड़ी लग गई। लोग कहने लगे – अगर मेटा ने अलर्ट नहीं भेजा होता तो क्या पुलिस को खबर लगती? क्या एक और मासूम जान चली जाती? कई यूज़र्स ने लिखा कि सोशल मीडिया सिर्फ मनोरंजन या नफरत का प्लेटफॉर्म नहीं, बल्कि संवेदनशील निगरानी का जरिया भी बन सकता है। वहीं, कुछ लोगों ने इसे “तकनीक की जीत” और “मानवता की रियल टाइम रेस्क्यू स्टोरी” कहा।
छात्रा के बयान ने खोला भावनाओं का पिटारा
पुलिस पूछताछ में छात्रा ने बताया कि वह लंबे समय से पढ़ाई और पारिवारिक तनाव के कारण परेशान थी। किसी से अपनी बात नहीं कह पा रही थी, इसलिए उसने सोशल मीडिया पर अपनी पीड़ा बयां करने का तरीका चुना। उसने कहा, “मैं चाहती थी कोई सुने, किसी को फर्क पड़े… पर नहीं सोचा था कि मेटा और पुलिस तक बात पहुंच जाएगी।” अब छात्रा को मनोवैज्ञानिक सहायता दी जा रही है और उसके परिवार की निगरानी में रखा गया है।
डिजिटल सेफ्टी पर बढ़ी चर्चा
इस घटना ने एक बार फिर सोशल मीडिया की जिम्मेदारी और डिजिटल सेफ्टी पर बहस छेड़ दी है। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे मामलों में युवाओं को साइकोलॉजिकल सपोर्ट और काउंसलिंग की जरूरत होती है। साथ ही, परिवार और दोस्तों को भी उनके सोशल मीडिया व्यवहार पर नजर रखनी चाहिए। भारत में इस तरह का अलर्ट सिस्टम अभी सीमित स्तर पर सक्रिय है, लेकिन कानपुर की घटना ने दिखाया कि इसकी आवश्यकता हर जिले में है।
कानपुर की यह कहानी सिर्फ एक छात्रा की नहीं, बल्कि उस तकनीक की है जिसने समय रहते एक जिंदगी को अंधेरे में जाने से रोका। यह घटना दिखाती है कि जब तकनीक और संवेदना साथ चलते हैं, तब “मौत की रील” भी “जीवन का अलर्ट” बन सकती है।
