कितना अजीब लगेगा न अगर कोई ये कहे कि एक सैनिक जो दुनिया को अलविदा कह चुका है. उसे फिर भी प्रमोशन दिया जाता है. पर ये सच है. एक ऐसा जांबाज जिसने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए थे. इस सैनिक को छुट्टी भी दी जाती है. और समयानुसार चाय-नाश्ता, खाना दिया जाता है. इस सैनिका का नाम है जंसवत सिंह रावत जो देवभूमि उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले का रहने वाले थे. पर आप ये सोच रहे होंगे कि इस सैनिक ने ऐसा क्या किया कि उसे आज भी प्रमोशन दिया जाता है. तो हम आपको बताएंगे. इस सैनिक की बहादुरी की दास्तां
बहादुरी की दास्तां
जसंवत सिंह रावत जिसने अकेले अपनी बहादुरी से 72 घंटे तक चीनी सैनिकों का मुकाबला किया था, और 300 से अधिक चीनी सैनिकों का खात्मा किया था. इसी कारण जसंवत सिंह को आज भी सम्मान दिया जाता है. इस बहादुर सैनिक का जन्म 19 अगस्त 1941 में हुआ था. और इन्होंने 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध में अपनी अहम भूमिका निभाई थी. युद्ध का मैदान 14,000फीट की ऊंचाई पर करीब 1000 किलोमीटर क्षेत्र पर स्थित था. जहां ठंड और इलाके दुर्गम पथरीले हैं. यहां जाने से ही लोग डरते हैं. लेकिन हमारे देश के सैनिक वहां दुश्मन से लड़ रहे थे. चीनीयों से जब युद्ध चल रहा था तो वो हिमालय सीमा को पार करके भारत की तरफ बढ़ रहे थे. हालांकि भारतीय सैनिक भी उनका मुकाबला डटकर कर रहे थे. लेकिन लड़ाई के बीच में संसाधन और जवानों की कमी के कारण बटालियन वापस लौट गई. पर जसवंत सिंह तब भी वहां डटे रहे और उन्होंने अकेले ही चीनी सैनिकों का मुकाबला करने का फैसला लिया.
स्थानीय लोगों की मानें तो इस लड़ाई में नूरा और सेला नाम की लड़कियों ने उनकी मदद की थी. और उनकी मदद से ही जसंवत ने फायरिंग ग्राउंड बनाकर मशीनगन और टैंक रखे थे. ये जसंवत सिंह रावत की एक चाल थी जिससे दुश्मन को ये लगे कि भारतीय सेना के सैनिक काफी संख्या में तैनात हैं. और तीन स्थानों से हमला कर रहे हैं. जसवंत सिंह इस तरह 72 घंटे तक चीनी सैनिकों को चकमा देते रहे. पर इसके बाद चीनी सैनिकों को ये पता चल गया कि भारत की तरफ से सिर्फ एक सैनिक ही चीनीयों पर हमला कर रहा है. फिर गुस्से से तिलमिलाए चीनियों ने 17 नवंबर, 1962 को चारों तरफ से घेरकर हमला किया. और जब जसंवत को ये लगा कि उन्हें अब पकड़ लिया जाएगा. तो उन्होंने खुद को गोली मार दी.
चीनी सेना हुई प्रभावित
इसके बाद चीनी सैनिक जसंवत सिंह का सिर काटकर अपने साथ ले गए. और युद्ध के बाद लौटा दिया. हालांकि जसंवत सिंह की बहादुरी से चीनी काफी प्रभावित हुए और उन्होंने पीतल की प्रतिमा भेंट की. और जिस जगह लड़ाई लड़ी गई थी. उसका नाम जसवंतगढ़ रख दिया है. और एक मंदिर भी बनाया गया है जहां उनसे जुड़ी सारी वस्तुएं रखी गई हैं. जहांं पांच सैनिक उनकी सेवा करते हैं.
बायोपिक
देश के इस जाबांज सिपाही के जीवन पर एक फिल्म भी बनाई गई है. जिसे अविनाश ध्यानी ने डायरेक्ट किया है वो भी पौड़ी गढ़वाल जिले के रहने वाले हैं. फिल्म का नाम (72 Hours Martyr Who Never Died) है.